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आज की रात बड़ी बोझिल है।

15 मई 2014

भारतीय लोकतंत्र के महान पर्व की कल पूर्णाहुति है। करीब एक-डेढ़ महीने से चली आ रही चुनावी प्रक्रिया व्यवहारिक रूप से कल पूर्ण हो जायेगी। रात दिन एक करके नेताओं और उम्मीदवारों ने चुनाव प्रचार किया था, कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी कार्यकर्ताओं ने मतदाताओं को अपनी पार्टी के उम्मीदवार की तरफ आकर्षित करने में। देश की जनता ने भी अपनी इच्छा से अच्छा जनप्रतिनिधि चुनने की कोशिश की। कल इन सब की कोशिशों का परिणाम आने वाला है।

उम्मीद तो सबको है अपने पक्ष में फैसला आने की हर कार्यकर्त्ता अपने उम्मीदवार की और हर उम्मीदवार अपनी जीत की उम्मीद लगाये बैठा है। हमारे देश की राजनीती के कुछ खास योद्धा की उम्मीद सिर्फ चुनाव जीतने को लेकर ही नहीं है। मोदी जी की उम्मीद सिर्फ अपनी सीट को लेकर नहीं है बल्कि इस हद तक सांसद जुटाने की है कि वो प्रधानमंत्री बन सकें। अब प्रधानमंत्री के पद की इस दौड़ में वह अकेले ही नहीं हैं। इधर आडवाणी जी की उम्मीद है कि काश राजग बहुमत से थोड़ी दूरी पर रुक जाए और जदयू जैसे पूर्व सहयोगी के सहयोग की जरूरत पड़े जो मोदी जी के नाम पर सहमत नहीं है तो उनके खुद के नाम पर आम सहमति बने। 

इधर मुलायम जी की भी उम्मीदें हैं कि किसी भी तरह से उनको उत्तरप्रदेश में 80 सीटें मिल जाए तो वो तीसरे मोर्चे की सरकार बनने की स्थिति में प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी उम्मीदवारी सुनिश्चित कर सकें। यही उम्मीद बहन मायावती भी लगाये बैठी हैं। यूँ तो एग्जिट पोल के नतीजे को देखते हुए कांग्रेस ने अपनी हार मान ही ली है। लेकिन उम्मीद लगाये बैठी है की अगर राजग किसी तरह 200 के आस पास ही सिमट जाए और अपनी सीटें १०० तक भी आ जाए तो सांप्रदायिक ताकतों को रोकने के नाम पर तीसरे मोर्चे को समर्थन देकर सरकार बनवा दी जाए।

उम्मीद नितीश जी को भी है कि अगर 25 से 30 के करीब सीट बिहार में आ जाए तो सरकार किसी की भी बने, समर्थन देकर बिहार के लिए विशेष राज्य का दर्जा मांग लिया जाए। बिलकुल यही उम्मीद हमारे नवीन पटनायक जी भी लगाये बैठे हैं और बहन ममता जी भी। उम्मीद  दिल्ली विधानसभा चुनाव में मिली सफलता से उत्साहित नयी नवेली पार्टी "आम आदमी पार्टी" को भी है कि बेशक सीट काम मिले या एक भी न मिले लेकिन वोट का प्रतिशत कुछ इस तरह से मिले कि पहले ही आम चुनाव में राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिल जाए। 

सबसे बड़ी उम्मीद हमारे माननीय नरेंद्र भाई मोदी जी की है। पहले भारतीय जनता पार्टी में प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी के लिए अपना नाम निर्णीत करवाना वो भी आडवाणी जी जैसे कद्दावर नेता के विरोध के बावजूद,  अपने आप में ही एक चुनाव जीतने के बराबर है। फिर सभी सहयोगी दलों में अपनी स्वीकार्यता बनवाना भी काम मुश्किल कार्य नहीं था। उसके बाद लगातार 6 महीने तक जनसभा करके जनता का मूड अपने पक्ष में करने की कोशिश  लगे रहे। वैसे तो एग्जिट पोल ने उनके सत्ता सौंप ही दी है। लेकिन एग्जिट पोल और चुनाव परिणाम में अंतर ख्वाब और हकीकत जैसा  ही है। 

इन सबके बीच जनता भी है जिसकी उम्मीद की शायद उसको ही फ़िक्र है। क्या कांग्रेस के 10 साल के कुशासन के बाद उससे मुक्ति मिलेगी ? क्या जिसको गद्दी सौंपने का निर्णय हम ले चुके हैं वो हमारी देखभाल सही से कर पायेगा, या फिर एक बार फिर हम छले जाएंगे ? क्या हमने जिसको सच्चा और अच्छा समझ केअर वोट दिया है, वही जीत पायेगा ? इन सब उम्मीदों और चिंताओं के बीच क्या आज की रात नींद ठीक से आ पाएगी, इन उम्मीदवारों को, नेताओं को, कार्यकर्ताओं को या फिर जनता को ?

वाकई में आज की रात बड़ी बोझिल है।
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