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प्रकृति के साथ खिलवाड़ का नतीजा तो यही होगा न।


20 जून, 2013

एक  बार फिर उत्तराखंड के केदारघाटी में कुदरत ने कहर बड्पाया है। हजारों लोग मारे गए हैं इस बाढ़ की विभीषिका में। 90 धर्मशालाएं बह गयी हैं इस बाढ़ में। 

यह कोई प्राकृतिक आपदा नहीं है है यह तो मानव जनित आपदा है। आखिर नदी किनारे भवन निर्माण करना विनाश को निमंत्रण देना नहीं है तो क्या है ? केदारघाटी में देवता शांत प्रक्रति मे निवास करते हैं। आज उत्तराखंड में आश्रमों की जगह होटल बन रहे है और धीरे धीरे आश्रम भी होटलों का रूप ले रहे है। धार्मिकता की जगह मनोरंजन के लिए गंगा किनारे का उपयोग किया जा रहा है। गंगा किनारे ध्यान भजन की जगह ''राफ्टिंग '' के मजे लेने लोग पहुँच रहे है। जब देव भूमि हनीमून का अड्डा बना दिया जाए, सात्विकता के बीच होटल और बार खुले, गंगा की पावनता में गन्दगी मिलाई जाए तो क्या होगा ? फिर तो माँ गंगा का ये रोद्र रूप भी देख लो। प्रकृति अपना संतुलन खुद बना लेती है। और तब सबके अहंकार ठिकाने लग जाते है। संत महात्माओं के गंगा के किनारे हो रहे खनन का विरोध किया लेकिन किसी ध्यान नहीं दिया। अब माँ गंगा अपना रास्ता खुद ही बना रही है।


जितने भी स्थलो पर बाढ़ आई है वो सारे या तो नदियों के किनारे बसे थे या फिर नदियों के रास्ते पर। ये सारे निर्माण नियमों को ताक पर रख कर किए गए हैं। पहले दुर्गम पहाड़ियों से होकर लोग प्रभु के दर्शन करने जाते थे लेकिन कभी प्रकृति के नियम से छेड़ छाड़ करने की नहीं सोची। तब ऐसे हादसे नहीं होते थे . लेकिन अब देखो, विकास के नाम पर पहाड़ों की कटाई कर दी।दुर्गम रास्तों को सुगम करने के लिए पहाड़ों और जंगलों की कटाई कर दी।फ्लैट्स और अपार्टमेंट्स बनने लगे हैं गंगा किनारे। गंगा किनारे अपना आशियाना बनाइये, गंगा की पावन स्थली में आपके सपनों का घर, देव भूमि में अपना निवास बनाइये, ऐसे ऐसे विज्ञापन आते हैं। यह सब निर्माण हो रहा है पर्यावरण को नुक्सान पहुंचा कर। और इसकी कीमत लोगों को चुकानी पर रही है अपनी जान देकर।


लेकिन प्रकृति थोड़े ही न अपना स्वभाव बदलेगी। वो तो अपने रास्ते से ही चलेगी। प्रकृति ने तो कड़ी चेतावनी दी है कि मेरे रास्ते में आओगे तो मारे जाओगे। इस आपदा में मरने वालो की सही संख्या तो शायद कभी भी पता ना चले। इस देश में पाप और पापियों की संख्या इतनी बढ गयी है कि सारे लोग धर्मसथलों की ओर भागे चले जा रहे हैं।  लेकिन क्या बाढ़ और बारिश के इसी मौसम में तीर्थयात्रा करना जरूरी है ? दुसरे मौसम में भी तो जाया जा सकता है। लेकिन होनी को कौन टाल सकता है ? हम तो मृत आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना ही कर सकते हैं।

उतराखंड में प्रकृति के साथ खिलवाड़ बंद करे, धार्मिक स्थल को पर्यटन स्थल न बनाए, वर्ना देश में जो तबाही आएगी , वह हिमालय से ही आएगी। विकास के नाम पर प्रकृति के साथ जो खिलवाड़ हो रही है, उत्तराखंड वासियों को उसका विरोध करना चाहिए।

उत्तराखंड मे हर साल कुदरत के कहर से मौते होती है। हर साल बचाव कार्य, राहत कार्य, मौतों की पुष्टि-खंडन, अनुदान-मुआवजा, आरोप-प्रत्यारोप चलता है। परन्तु इसके रोकथाम के लिए कोई ठोस तैय्यारी नहीं की जाती है। ऋषिकेश-बदरीनाथ राष्ट्रीय-राजमार्ग के समान्तर (गंगा-पार) रेलमार्ग की व्यवस्था होनी चाहिए - ताकि आपदा के समय फंसे हुए लोगो को राजमार्ग अथवा रेलमार्ग से शीघ्रता व आसानी के निकाला जा सके एवं राहत व बचाव कार्यों में तेजी आ सके. सरकार को आधुनिक उपकरण स्थापित करने चाहिए ताकि मानसून एवं भारी-वर्षा की सटीक जानकारी प्राप्त हो सके। मानसून एवं भारी-वर्षा के समय यात्रा पर प्रतिबन्ध लगाना चाहिए. यात्रा/राज-मार्ग जिन पहाड़ो से गुजरती है उन पहाड़ों पर वृक्षों की कटाई पर कठोर दंड होना चाहिए एवं उन पहाड़ों पर भारी मात्रा मे वृक्षारोपण करना चाहिए. उन स्थानों की वैज्ञानिक-पहचान होनी चाहिए जहाँ भूस्खलन हो सकता है तथा उचित कार्रवाई करनी चाहिए। इन सब पर आने वाला खर्चा बचाव/राहत कार्य, अनुदान-मुआवजा के खर्चों से काफी कम होगा। 

लेकिन यह सब करने की फुरसत किसको है ?  कहाँ है डिजास्टर मैनेजमेंट ? करोडों रूपये इस पर खर्च होते हैं और नतीजा सामने है। यहाँ विपक्षी दल सरकार पर आरोप लगाती रहती है और सरकार कहती है कि हम आपके कार्यकाल से ज्यादा अच्छा कर रहे हैं। और मरती है आम जनता और श्रद्धालु।

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