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क्या दिल्ली में सरकार नहीं बन सकती थी ?

16 नवम्बर 2014

पिछले हफ्ते दिल्ली विधानसभा भंग कर दी गयी। कुछ लोग तो फरवरी 2014 में ही चाहते थे कि विधानसभा भंग हो जाए और फिर से चुनाव हो। लेकिन, उप-राज्यपाल महोदय ने विधानसभा को निलंबित करने का प्रस्ताव किया। उन्होंने फिर से सरकार बनने की सभी संभावनाओं को तलाश करने की कोशिश की। वो चाहते थे कि चाहे किसी भी पार्टी की सरकार बने लेकिन दिल्ली की जनता को चुनाव के खर्चे से बचा लिया जाए। दिल्ली की जनता को एक स्थिर सरकार मिल जाए। इसके लिए उन्होंने अंत तक प्रयास भी किया लेकिन अफ़सोस, वो विफल रहे और दिल्ली में फिर से चुनाव होने वाले हैं। जाहिर सी बात है साल भर के अंदर में ही दो बार चुनाव हो जाएंगे और  उसका  खर्चा जनता को ही भुगतना होगा। 

लेकिन , मुद्दे की बात ये है कि क्या वाकई में दिल्ली में सरकार नहीं बन सकती थी ? दिल्ली विधानसभा 2013 के चुनाव परिणाम कुछ इस तरह  के थे। 

भारतीय जनता पार्टी - 32 
आम आदमी पार्टी - 28 
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस - 8 
जनता दल (यूनाइटेड ) - 1 
निर्दलिय - 1

वस्तुतः इस चुनाव परिणाम से कोई भी पार्टी खुश नहीं थी। भाजपा सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद खुश नहीं थी क्योंकि वह सत्ता से 4 कदम पीछे थी। और उसको समर्थन देने वाला 4 तो क्या 1 भी विधायक नहीं मिल सका। सबसे पहले उसने ही सरकार बनाने से हाथ खड़े कर दिए। कांग्रेस ने तो सबसे पहले ही आम आदमी पार्टी को समर्थन देने की घोषणा कर दी और आम आदमी पार्टी थी कि कांग्रेस का समर्थन लेना नहीं चाहती थी। कारण चुनाव पूर्व जनता से किए वादे कि हम न तो किसी को समर्थन देंगे और न ही किसी का समर्थन लेंगे। लेकिन "आप " परोक्ष रूप से कांग्रेस का समर्थन लेते हुए प्रत्यक्ष रूप से अल्पमत सरकार बनाने को राजी हो गयी और सरकार पूरे 49 दिन ही चल सकी।  49 दिन ही क्यों चली ये अलग चर्चा का विषय है।

बात घूम फिर कर वहीं आती है कि क्या दिल्ली में सरकार नहीं बनाई जा सकती थी ? क्या राजनीती में सिर्फ विरोध करना ही विपक्षी दल का काम होता है ? क्या ऐसा नहीं हो सकता था कि भाजपा सरकार बनाये और विरोधी दल विश्वास मत में हिस्सा ही न ले, या फिर "आप" सरकार बनाये और भाजपा अपना विरोध जताते हुए मतदान से अनुपस्थित रहे। उनका विरोध दर्ज भी हो गया और लोकप्रिय सरकार भी बन गयी। या फिर सबसे बड़े और पुरानी दोनों राष्ट्रीय पार्टी का राजनितिक धर्म नहीं बनता था कि एक सरकार बनाये तो दूसरा मतदान में हिस्सा न ले , कम से कम सरकार तो बन जाती। अतीत में भी कई बार हुआ है कि विरोधी दल ने मतदान में हिस्सा न लेकर सरकार बनवा दी । क्या पार्टी हित ही सर्वोपरि है ? देश हित और जन हित कुछ भी नहीं ?

ये चुनाव का खर्चा जनता ही तो उठाएगी , और कौन उठाएगा ? लेकिन यहाँ तो सब अपनी साधने में लगे हैं। हम ही सरकार बनाएंगे वरना किसी को नहीं बनाने देंगे। एक हम ही अच्छे, हमारी सरकार ही अच्छी और बाकी सारे झूठे , मक्कार और भ्रष्टाचारी। ऐसी मानसिकता से देश नहीं चलता। देश के लिए कई बार निजी हितों और पार्टी हितों से ऊपर उठना पड़ता है। अरे, आपकी पार्टी अच्छी है न तो आप दूसरे की सरकार बन जाने दो और अपने विधायकों से अच्छा काम करवा कर जनता की सेवा करवाओ। फिर जनता ही तय कर देगी अगले चुनाव में कि कौन सी पार्टी अच्छी और कौन सी बुरी।

दिल्ली में सरकार बिलकुल बन सकती थी, लेकिन पार्टियों और नेताओं की महत्वाकांक्षा के कारण नहीं बन सकी , ऐसा ही कहा जा सकता है।
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