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चुनाव आयोग को कोई गंभीरता से क्यों नहीं लेता ?

21 अप्रैल 2014

चुनाव आयोग एक संवैधानिक संस्था है जिसका कार्य होता है देश में चुनाव करवाना। चुनाव की अधिसूचना जारी होने के बाद जब तक चुनाव संपन्न न हो जाए, विधायिका और कार्यपालिका के सारे फैसले चुनाव आयोग की अनुमति से ही होते हैं। हमारे संविधान में चुनाव आयोग को बड़े सारे अधिकार दिए गए हैं। चुनाव आयोग किसी भी अफसर का तबादला कर सकता है। उम्मीदवारों के व्यवहार पर अंकुश लगा सकता है। चुनाव आयोग आचार संहिता भी जारी करता है जिसका पालन हर राजनितिक दल और उम्मीदवार को करना पड़ता है। 

लेकिन सवाल यह है कि इतने अधिकारों से संपन्न चुनाव आयोग क्या अपने अधिकारों का प्रयोग कर पाता है ? चुनाव में अक्सर राजनितिक दल और उम्मीदवार चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित राशि से ज्यादा ख़र्च करते हैं ऐसी खबरें आती है। आपसी बयानबाजी में तो नेता लोग गली गलौज पे उत्तर आते हैं। कोई किसी को बोटी बोटी काट देने की धमकी देता है तो कोई अपनी पार्टी को वोट न देने पर पाकिस्तान भेजने की धमकी देता है। अभी महाराष्ट्र में एक पार्टी के नेता ने कहा कि हमें वोट नहीं दिया तो हम पता लगा लेंगे कि तुम लोगों ने हमें वोट  नहीं दिया है और फिर हम तुम्हारे इलाके में पानी आना बंद करवा देंगे। किसी ने चुनावी भाषण में कहा की दंगों का बदला लो, हमें वोट करों।  लेकिन चुनाव आयोग क्या करता है ? उनको चेतावनी देकर छोड़ देता है। दो चार दिन के लिए उनके भाषण पर रोक लगा देता है फिर रोक हटते ही वही हाल।

आखिर चुनाव आयोग को नेतागण गंभीरता से क्यों नहीं लेते ? उनको पता है कि बेशक तुम नियमों की धज्जियाँ उड़ा दो, होना कुछ नहीं है। चेतावनी देकर छोड़ दिया जाएगा या फिर थोड़े बहुत फाइन लगा दिए जायेंगे। इससे ज्यादा तो कुछ होना नहीं है। यही कारण है कि चुनाव के दौरान जनसभा में नेता लोग बेलगाम बोलते हैं एक बार तो एक पार्टी के उपाध्यक्ष नें दूसरी पार्टी का घोषणा पत्र ही फाड़ दिया था जनसभा में। क्या किया चुनाव आयोग ने ? कभी नहीं सुना कि आचार संहिता के उल्लंघन के मामले में चुनाव आयोग ने किसी उम्मीदवार की उम्मीदवारी रद्द कर दी है या फिर किसी का निर्वाचन रद्द कर दिया है। ऐसे काम या कठोर निर्णय तो हमारे देश की न्यायपालिका ही ले पाती है।

एक जमाना था जब आम जनता को पता भी नहीं था कि चुनाव आयोग नाम की कोई चीज भी होती है हमारे देश में। 1991 की बात है, अख़बार में पढ़ा कि टी. एन. शेषन. चुनाव आयुक्त बनाये गए। तब तक मुझे पता नहीं था कि चुनाव आयोग क्या होता है। बड़े बुजुर्गों से पूछा तो उनमें से भी अधिकतर लोग इसके बारे में अनभिज्ञ ही दिखे। लेकिन श्री शेषन जी ने अपने कार्यकाल के दौरान ऐसे ऐसे सुधार किये चुनाव प्रणाली में और ऐसे ऐसे कड़े फैसले लिए आचार संहिता को रद्दी कागज समझने वालों के खिलाफ कि उनका नाम भारत के चुनावी इतिहास में अमर हो गया। आज सबलोग उनको जानते हैं। अगर चुनाव आयोग के बारे में हम लोग जानते या समझते हैं तो यह श्री शेषन जी की ही देन है। उन्होंने ही मतदाता पहचान पत्र की प्रथा शुरू की, वरना उन दिनों फोटो पहचान पत्र न होने के कारण वास्तविक मतदाता की पहचान नहीं हो पाती थी और कोई व्यक्ति दूसरे के बदले वोट डाल आता था ।

लेकिन बात वहीँ आकर  रुक जाती है कि उम्मीदवारों, नेताओं की बयानबाजी और आचार संहिता के उल्लंघन के मामलों में चुनाव आयुक्त कड़े फैसले क्यों नहीं ले पाते ? या तो उनको राजनीतिक दलों से डर लगता है कि सत्ता में आने पर कहीं उन्ही के खिलाफ कार्रवाई न कर दें वो लोग जिनके खिलाफ आज ये कार्रवाई करेंगे।  या फिर इनको राजनितिक दलों से कुछ उम्मीदें हों। अतीत में एक पूर्व चुनाव आयुक्त केंद्र सरकार में मंत्री भी बन चुके हैं। लेकिन इस तरह से कार्य करने पर चुनाव आयोग तो सिर्फ बिना दाँत का शेर बना ही रह जाएगा , है न ?
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