Catwidget3

रथ यात्रा से स्वार्थ यात्रा



16 जून, 2013

आडवाणी जी एक ऐसे वृध व्यक्ति की तरह व्यवहार कर रहे हैं, जो अपने ही घर के लड़के की बारात के आगे अड कर खड़ा है कि दूल्हा तो मैं ही बनूँगा.

पुराणों में सिर्फ तीन तरह के ह्ठ का उल्लेख है.

राज ह्ठ
बाल ह्ठ
त्रिया ह्ठ


दादा जी के ह्ठ को देखते हुये, वृध ह्ठ भी आज से प्रचलित हो जायेगा.

आज हिन्दुस्तान की राजनीति की थोड़ी सी भी समझ रखने वाला यही सोचने पर मजबूर हो रहा है.

आखिर जिस भाजपा को उन्होनें इतने मेहनत से इस उंचाई पर पहुँचाया था, उसीको गर्त में मिलाने पर क्यों तुले हुये हैं भीष्म पितामह ? 2004 में पार्टी इन्हीं के फील गुड वाले नारे के साथ समय से पहले ही आम चुनाव में मैदान में कूद पड़ी थी. नतीजा जो हुआ, सबलोग जानते हैं. 2009 के चुनाव में तो ये बाकायदा प्रधानमंत्री के उम्मीदवार भी घोषित किये गये थे फिर भी जनता ने इनकी पार्टी को इतना आशीर्वाद नहीं दिया कि आडवाणी जी प्रधानमंत्री बन सकें और  इनके जैसे राजनीति के महारथी के सामने मनमोहन जी जैसे नौसिखिये को जनता ने चुन लिया.

तो अब क्या जरूरी है कि फिर से इन्हीं पर दाव लगाया जाये? जनता के मन में आडवाणी जी की जो छवि 2004 और 2009 के दौरान थी वही अभी भी है. 1990 में जब इन्होने सोमनाथ से अयोध्या की रथ यात्रा की थी तब इनकी छवि एक ऐसे कट्टर हिन्दूवादी नेता की बनी जो अयोध्या में राम मंदिर बनवाने के लिये आमादा था. जिस जिस शहर से इनका रथ गुजरा, लोगों ने भरपूर समर्थन दिया. जनता को सारी समस्या का समाधान राम मंदिर के निर्माण में ही दिखने लगा था.

आडवाणी जी ने देश के लोगों में हिन्दुत्व की भावना का जो ज्वार उत्पन्न किया उससे उनका राजनीतिक कद तो बढ़ा ही, भाजपा को भी बहुत फायदा हुआ. भाजपा की लोकसभा सीट की संख्या जो कि 1989 के चुनाव में 85 मात्र थी, 1991 में 120, 1996 में 161, 1998 में 182 तक पहुंच गयी. यह सब सिर्फ और सिर्फ आडवाणी जी की हिन्दुत्ववादी छवि के कारण ही संभव हो सका. लेकिन इनकी यही छवि इनके आड़े आ गयी. भाजपा की सीटें इतनी थी नहीं की अपने दम पर सरकार बना ले और इनके नाम पर कोई भी पार्टी समर्थन देने को राजी नहीं थी.  उदारवादी छवि के अटल जी के लिये इनको अपने अरमानों का बलिदान देना पड़ा.

वैसे इन्होने कोशिश भी की अपनी छवि को बदलने की. पाकिस्तान गये और जिन्ना जी के मजार पर धर्मनिरपेक्षता की खूब बातें की. उनके इस कदम को राजनीतिक गलियारे में अपनी छवि बदलने और समर्थन देने वाली पार्टियों के बीच अपनी स्वीकार्यता बनाने के रूप में देखा गया. लेकिन जब जनता ने ही नकार दिया तो क्या किया जा सकता है.

अब राम मंदिर कोई मुद्दा रहा नहीं. लोग विकास के नाम पर वोट कर रहे हैं. इन्ही की पार्टी के नरेन्द्र मोदी जी को विकास पुरुष कहा जाता है. विकास के पर्याय बन गये हैं मोदी जी. मोदी जी के नाम पर जनता एक बार फिर भाजपा को अपना आशीर्वाद दे सकती है ऐसा सबको विश्वास है. उनके अलावा पार्टी में चमत्कारिक व्यक्तित्व वाला को दूसरा नेता है भी नही.

लेकिन इनके भी आड़े आ रहा है, आडवाणी जी की प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा. और हो भी क्यों नहीं ? जिस पेड़ को इन्होने इतने मेहनत से पाला-पोसा, उसमें फल लगने का समय आया तो फल खाने कोई और आ गया. लेकिन आडवाणी जी, अगर इस नये आदमीं ने नये तरीके के खाद और कीटनाशक का प्रयोग नहीं किया होता तो फल लगना तो दूर, पेड़ भी कब का सुख चुका होता.

लेकिन इसका मतलब ये तो नहीं की दादाजी को फल खाने से वंचित कर दिया जाये. इससे नयी पीढी को क्या सीख मिलेगी ? कोई दादा क्यों पेड़ लगायेगा जब उसे पता लगे कि फल आने पर उसको गुठली भी नहीं दिया जायेगा.

अच्छा होगा कि चुनाव तो मोदी जी को आगे करके लड़ा जाये. लेकिन जब पार्टी सत्ता में आती है तो 6 महीने के लिये ही सही दादाजी को प्रधानमंत्री बना दिया जाए. फिर दादाजी उम्र का हवाला देकर इस्तीफा दे दें और मोदी जी को गद्दी सौंप दें.

लेकिन क्या मोदीजी को ये मंजूर होगा ?

Share on Google Plus

About मृत्युंजय श्रीवास्तव

0 comments:

Post a Comment