2 अक्टूबर, 2013
करोड़ों रुपये खर्च करके चुनाव जीतने वाला, सिर्फ देश सेवा करने आता है? क्या देश सेवा के सारे रास्ते, भारतीय संसद और विधानसभाओं से ही गुजरते हैं? क्या आम जनता की मदद करने के लिये जन प्रतिनिधि होना जरूरी है? इसका मतलब तो जो लोग जन प्रतिनिधि नहीं है, वो किसी की मदद ही नहीं करते? चुनाव लड़ने की इच्छा रखने वालों के पास 2-4 हजार रूपये मांगने चले जाओ कि हम गरीब हैं, हमारी मदद कीजिये. क्या वो ऐसी मदद करेंगे? लेकिन जनता के सेवक बनने के लिये करोड़ों रुपये खर्चने को तैयार बैठे रहते हैं.
दरअसल ये सेवक नहीं शासक हैं. जन प्रतिनिधियों को मिलने वाली सुख सुविधाओं को भोगने के लिये ही अधिकतर लोग राजनीति में आते हैं, वर्ना समाज सेवा के और भी तरीके हैं. लेकिन जिस देश की आधी से ज्यादा आबादी भूखे सोने को मजबूर है, वहाँ जनप्रतिनिधियों को इतनी सारी सुख सुविधायें देने का क्या औचित्य है? आम जनता को सामान्य जीवन यापन करने में भी परेशानी आ रही है. न्यूनतम मजदूरी भी मिलना मुश्किल हो रहा है. महंगाई उपर से कमर तोड रही है. लेकिन इनको मिलने वाली सुविधाओं को देख लो. पुराने जमाने में लगता है, रियासतों के राजाओं का भी ऐसा ही वैभव रहा होगा. हर मामले में आम आदमीं से वरीयता दी जाती है इनको, चाहे बात सड़क पर चलने की ही क्यों न हो.
ऐसे तो हर मुद्दे और विधेयक पर सत्ता और विपक्षी दलों की अलग अलग राय होती है. मामला चाहे जनता के हित में ही क्यों न हो, ये इसमें भी राजनीतिक फायदा देखते हैं. अभी सजायफ्ता जनप्रतिनिधि की सदस्यता बचाने वाले बिल को ही देख लो. सर्वदलीय बैठक में सारे एक सुर में समर्थन करने लगे थे. लेकिन ज्योंही इनके वेतन और भत्ते बढाने का मौका आता है, सर्वसम्मति बन जाती है. वोट विभाजन की भी जरूरत नहीं पड़ती, ध्वनिमत से बिल पास हो जाता है.
आवास मुफ्त, वेतन इतना कि आम आदमीं चौंक जाये, जरूरत का सामान या तो मुफ्त या फिर बाजार से बहुत कम दाम में, टेलिफोन कॉल्स मुफ्त, उच्च स्तरीय चिकित्सा मुफ्त, आदि आदि. इतने सारे भत्ते, खूब सारा वेतन, इतनी सारी सुविधायें मिलें तो हर कोई ऐसा सेवक बनाना चाहेगा. अगर इनको मिलने वाली मुफ्त सुविधायें बंद कर दी जाय और वेतन आम जनता की आमदनी के अनुरूप ही मिले तो जनता के सेवक बनने के इच्छुक बहुत से लोग चुनावी मैदान में नजर नहीं आयेंगे. होड़ ही खत्म हो जायेगी जन सेवक या जन प्रतिनिधि बनने की .
लेकिन ऐसा कानून बनायेगा कौन, अपने पैरों पर कुल्हाड़ी या फिर कुल्हाड़ी पर पैर मारेगा कौन ?
आवास मुफ्त, वेतन इतना कि आम आदमीं चौंक जाये, जरूरत का सामान या तो मुफ्त या फिर बाजार से बहुत कम दाम में, टेलिफोन कॉल्स मुफ्त, उच्च स्तरीय चिकित्सा मुफ्त, आदि आदि. इतने सारे भत्ते, खूब सारा वेतन, इतनी सारी सुविधायें मिलें तो हर कोई ऐसा सेवक बनाना चाहेगा. अगर इनको मिलने वाली मुफ्त सुविधायें बंद कर दी जाय और वेतन आम जनता की आमदनी के अनुरूप ही मिले तो जनता के सेवक बनने के इच्छुक बहुत से लोग चुनावी मैदान में नजर नहीं आयेंगे. होड़ ही खत्म हो जायेगी जन सेवक या जन प्रतिनिधि बनने की .
लेकिन ऐसा कानून बनायेगा कौन, अपने पैरों पर कुल्हाड़ी या फिर कुल्हाड़ी पर पैर मारेगा कौन ?
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